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मा को बीबी बनाओ. बहन को बीबी बनाओ. सुखी रहोगे.

देवी विभूति
देवी विभूति
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मा को बीबी बनाओ. बहन को बीबी बनाओ. सुखी रहोगे.

जब आदमी अपने आप को ईश्वर मानने लगता है. या दूसरे शब्दों में ईश्वर की सत्ता को नकार देता है. तो उसे ईश्वर से सम्बंधित या ईश्वर से आश्रित प्रत्येक पक्ष से इनकार स्वाभाविक रूप से हो जाता है. जैसे भूत का यदि अस्तित्व ही नहीं है. तो फिर भूत किसी को क्यों पकड़ेगा? वह किसी के छुडाने से क्यों छोड़ देगा? या किसी के पकडाने से क्यों पकड़ लेगा? ठीक इसी तरह से यदि ईश्वर है ही नहीं तो फिर उन समस्त मार्गो, आचरणों, प्रयत्न एवं परिकल्पना के ताने बाने बुनने का कोई औचित्य नहीं बनता है. अब अगर हम कहते है. क़ि पाप से डरो. ईश्वर इसका भयंकर दंड देगा. यदि ईश्वर है ही नहीं तो वह दंड क्यों और कैसे देगा? किन्तु बुरे कार्य का तो परिणाम तो बुरा होगा ही. तो फिर वह बुरा कौन करेगा? दूसरा भी तो भगवान है नहीं. तो फिर दंड का विधान कौन करेगा?

अब हम कहेगें क़ि बुरे काम का बुरा फल स्वतः ही उपार्जित हो जाता है. जैसे मिर्च खाने पर उसका स्वाद स्वतः तीखा लगने लगता है. तो बुरा कहेगा क़ि इसकी कड़वाहट सबको नापसंद है. कहा जाता है क़ि मिर्च के प्रयोग से तरह तरह की बीमारियाँ भी होती है. इसका पाचन तंत्र पर बुरा असर पड़ता है. फिर तो यह मिर्च बहुत बुरी चीज है. सबको अपने तीखे स्वाद से घबडा देती है. तो फिर मिर्च को उसके इस बुरे काम का क्या दंड मिलता है?
खैर यह तो पौधा है. एक मनुष्य जो भला काम करता है, क्या वह नहीं मरता है? तो फिर बुरा काम करने वाला भी मरता है. भला काम करने वाला भी मरता है. तो फिर बुरा काम करने वाले को अतिरिक्त दंड क्या मिलता है? बुरा काम करने वाले को न तो जल अपना स्वाद बदल कर लगता है. न तो मीठी वायु उसे तीखी लगती है. न तो सूरज उसके लिए शीतल या उग्र होता है. न तो भले काम करने वाले के लिए वह घाव परम सुख कारी होता है जो बुरा काम करने वाले को दुःख दाई होता है. न तो बुखार बुरे व्यक्ति को बलहीन करता है और नहीं भले को बलवान. बुरा काम करने वाले को समाज से निकाल देगें. कोई बात नहीं. सब बुरे अपना एक अलग समाज बनाकर भले लोगो को अपने सामाज से बहिष्कृत कर देगें. ईश्वर कुछ होता नहीं है. ईश्वर नहीं तो फिर लोक-परलोक की कल्पना ही बेमानी है. तो फिर इन सब से डरने की कोई गुन्जाईस ही नहीं बचती है. समाज उसका अपना है ही. भले लोगो की अपनी परम्परा है. बुरे लोगो की भी अपनी अलग परम्परा है. बुरे लोग भले लोगो को असभ्य एवं पाखंडी कहेगें. भले लोग बुरे लोगो को पापी कहेगें. भले लोग भी संसार के कुचक्र में फंसे है. कुछ नहीं तो समाज की विसंगतियां मिटाने में तो दिन रात एक किये हुए है. फिर वे ही कहाँ सुखी एवं शान्ति पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे है? ठीक वैसे ही बुरे लोग भले लोगो की आचरण से दुखी है. तथा उन्हें अपने समाज के अनुरूप आचरण करने के लियी मज़बूर कर रहे है. भले लोगो के आचरण एवं सिद्धांत से बुरे लोग दुखी है. दोनों ही तो दुखी है. दोनों दंड भुगत रहे है. कही सब भले लोग मिल कर बुरे लोगो को प्रताड़ित कर रहे है. तो कही सब बुरे लोग मिल कर भले लोगो को प्रताड़ित कर रहे है. कही बुरे लोग भले लोगो की परम्पराओं, सिद्धांतो, मान्यताओं तथा आचार-व्यवहार पर कीचड उछाल रहे है. तो कही भले लोग बुरे लोगो के आचरण, सिद्धांत तथा मान्यताओं को घृणित बता रहे है. हम कहते है, उसका समाज बुरा है. वह कहता है हमारा समाज बुरा है. हम अपने सिद्धांतो की कसौटी पर उसके सिद्धांतो को निम्न स्तरीय बताते है. बुरा अपने सैद्धांतिक कसौटी पर हमारे आचार-व्यवहार एवं समाज को निम्नस्तरीय बता रह है. राम ने रावण को मारा. रावण बुरा था. तो राम ही कहाँ आज जीवित है? वह भी तो मर खप गए? भले लोगो के अपने ग्रन्थ है. शास्त्र है. जिसे ऋषियों-महर्षियों ने लिखा या संकलित किया. बुरा कहेगा क़ि ऋषि महर्षि भी तो आदमी ही थे. हम भी अपना दर्शन, शास्त्र एवं ग्रन्थ लिखेगें. क्या तुम्हारे ऋषियों ने कुछ लिख दिया तो दूसरा कोई कुछ नहीं लिख सकता है? तुम भी लिखने लगे तो लेखक बन गए. हम भी कुछ लिखने लगेगें और लेखक बन जायेगें. बुरा पूछेगा क़ि वह कौन सा काम है जो तुम कर सकते हो और हम नहीं. सिवाय ईश्वर को मानने के? तुम अपने समाज, सिद्धांत, मान्यता, परम्परा, आचार एवं व्यवहार को ऊंचा मानते हो. और उसी में सुखी हो. हम अपने सिद्धांत, आचार-व्यवहार एवं परम्परा एवं मान्यता को तुमसे ऊंचा मानते है. और उसी में सुखी है. तुम हमें जानवर कहोगे. हम तुम्हे जानवर कहेगें. तुम्हारे लिए हम असभ्य, जाहिल,  गंवार एवं पाखंडी है, तुम हमारे लिए जाहिल, गंवार एवं पाखंडी हो. रही बात बहुमत की, तो क्या ढेर सारे मूरख एक ज़मात बना लेगें तो उनका मत सर्व मान्य हो जाएगा? लेकिन तुम्हारे समाज में तो इसी को बहुमत माना जाता है. यदि ढेर सारे लोग किसी को अपना नेता चुन लिए तो वह नेतृत्व करने लगेगा. किन्तु वह तुम्हारा समाज है जो किसी सिद्धांत एवं मान्यता के आधार पर बहुमत बनाए हुए है. हमारे समाज में हमारा बहुमत है. तुम हमारे नेता को बुरे लोगो का नेता कहोगे. हम तुम्हारे नेता को मूर्खो का नेता कहेगें. कहते रहो.
कारण यह है क़ि तीसरी कोई सत्ता है ही नहीं. भला कहता है, पत्नी अर्धांगिनी होती है, किन्तु माता जन्म देने वाली होती है. उसका स्थान सबसे ऊंचा होता है. बुरा कहता है क़ि अर्धांगिनी भी तो किसी बच्चे को जन्म देने वाली मा ही होती है. बुरा तर्क देता है क़ि रूप-रंग, आकार-प्रकार, आतंरिक-बाह्य सब बनावट तो अर्धांगिनी एवं मा की सामान ही है. तो क्या फिर केवल संबोधन मात्र से एक औरत मा हो गयी? और उसका दर्ज़ा ऊंचा हो गया? तो अर्धांगिनी को ही क्यों न मा के संबोधन से पुकारा जाय? भला कहेगा क़ि बहन और पत्नी में अंतर होता है. बुरा पूछेगा क़ि वह अंतर तो बताओ? भला कहेगा क़ि बीबी दूसरे के गर्भ से जन्म लेती है. जब की बहन अपनी ही माँ के गर्भ से जन्म लेती है. बुरा कहेगा क़ि क्या दूसरे के गर्भ से जन्म लेने वाली लड़की सदा ही घृणिता, कुलक्षनी एवं पापिनी होती है जो उसका शील भंग कर उससे शारीरिक सम्बन्ध बनाकर उसके कौमार्य को भंग किया जाय? और अपनी बहन सुलक्षणा, सदाचारिणी एवं सुन्दर होती है जिसे भोगने के लिए दूसरे के सुपुर्द कर दिया जाय? तो वहां पर भी तो उसका कौमार्य किसी के द्वारा भंग ही किया जाएगा? तो फिर यह लड़कियों का एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट क्यों?
क्योकि ईश्वर नहीं तो पाप पुण्य कैसा? सब ईश्वर है. सब देवी देवता है. सभी स्वयं ईश्वर है. या कोई ईश्वर नहीं है. किसी में किसी का भेद कैसा? दूसरे की लड़की बीबी तो फिर अपने पिता की लड़की बहन कैसे? वह भी बीबी है. यह सब तो भले लोगो की बनायी गयी भ्रामक मान्यताएं है. क्या केवल संबोधन मात्र से ही बहन-बीबी का अंतर उजागर होता है? तो फिर बहन को ही बीबी क्यों न कहा जाय? भला आदमे कहेगा क़ि अपनी बहन से शारीरिक सम्बन्ध कैसे बना सकते हो? क्या शर्म नहीं आयेगी? बुरा कहेगा क़ि बीबी के शरीर में वह कौन सा अँग अतिरिक्त होता है जो बहन के शरीर में नहीं होता है? बहन के किस अँग में विकृति होती है जिसके कारण उससे शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाया जा सकता? अब रही शर्म की बात. तो बीबी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते समय वह शर्म क्यों नहीं आती? शर्म हम बनाते है तो बनती है. शर्म एवं बेशर्म तो सब मन के विकार है. ईश्वर को मानना या न मानना मानसिक विकार ही तो है?
लेकिन फिर वही बात. ईश्वर तो है ही नहीं. फिर मानसिक विकार से उसके अस्तित्व को कहाँ से आधार मिलेगा? सब बेकार.
ईश्वर को मानने से अनेक प्रतिबंधो एवं मर्यादाओं में सीमित हो जाना पडेगा. और ईश्वर को न मानने से अपनी इच्छा के स्वच्छंद गगन में उन्मुक्त विचरण करने का अवसर मिलेगा. अब पूछेगा बुरा आदमी क़ि ईश्वर को मानने में लाभ है या न मानने में?
विभूति

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